कौन था कर्ण? महाभारत में सूर्य पुत्र कहलाने वाले इस योद्धा के पूर्वजन्म से जुड़ी है कवच-कुंडल की कहानी

 भोर का समय है. आकाश बिल्कुल साफ है और नदी का जल शीतल. पंछी अपने घोंसलों से निकलकर विहार को निकल चुके हैं. उधर पूर्व दिशा के आकाश में कुछ लालिमा सी उभर रही है और धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही है. ऐसा लग रहा है कि जैसे अपने सात घोड़ों के रथ पर सवार सूर्यदेव तेजी से इस ओर बढ़ते आ रहे हैं. प्रकृति के इस सौंदर्य के बीच एक और ध्वनि गूंज रही है. ध्यान से सुनने पर लगता है कि यह गायत्री मंत्र है

कर्ण के साथ नियति ने किया क्रूर मजाक

पर इतनी सुबह,गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए सूर्यदेव को अर्घ्य देता यह युवक कौन है? यह कोई और नहीं कर्ण है. महाभारत में जिसे महादानी, महान धनुर्धर और महावीर होने का गौरव प्राप्त है. उसे महारथी और रश्मिरथी कर्ण कहा गया है. कर्ण महाभारत का एक ऐसा पात्र है, जिसके साथ नियति, जन्म से ही क्रूर मजाक शुरू कर देती है. पैदा होते ही मां से बिछड़ना पड़ा. प्रखर-मेधावी होते हुए भी शिक्षा से वंचित होना पड़ा. किसी तरह कौशल का प्रशिक्षण मिला भी तो वह भी श्राप के साथ, सूतपुत्र कहा गया. प्रेम में भी छल, विवाह में भी छल, रणकौशल में भी छल और जब अपने जीवन का सबसे जरूरी युद्ध लड़ने खड़ा हुआ तो जीवन ने फिर छला, ठीक उसी समय कर्ण को पता चला कि वह तो कुंती पुत्र है. पांडवों में सबसे बड़ा है. लिहाजा यहां भी बिना लड़े युद्ध में हारना उसके भाग्य में लिख गया.


कर्ण के मानस पिता हैं सूर्य देव

फिर भी एक आशीष कर्ण से कोई नहीं छीन सका, वह था सूर्य देव का आशीष. महान कर्ण, विश्व के महान और त्याग की मूर्ति देवता सूर्यदेव का पुत्र था. त्याग और दान का ये वरदान कर्ण को अपने पिता सूर्यदेव से ही मिला था, जो जीवन भर उसकी शक्ति बना रहा. सूर्यदेव सिर्फ वेद-पुराणों में ही नहीं शामिल हैं, बल्कि रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में भी वे प्रमुख किरदारों के रूप में शामिल होते हैं. श्रीराम का तो जन्म ही सूर्यवंश में हुआ था तो वहीं महाभारत में वह कर्ण के मानस पिता के रूप में दिखाई देते हैं.


कैसे हुआ कर्ण का जन्म?

कुंती ने जब ऋषि दुर्वासा से देवहुति मंत्र पाया था तो सिर्फ परीक्षण करने के लिए उन्होंने सूर्य देव को बुला लिया, लिहाजा उन्हें बिना विवाह के ही मां बनना पड़ा था. इसी लोकलाज के कारण कुंती ने अपनी पहली संतान कर्ण को जन्म के बाद ही गंगा में बहा दिया, जो कि बाद में दानवीर कर्ण के नाम से जाना गया. कर्ण के जन्म का रहस्य भी पिछले जन्म में सूर्यदेव के एक वरदान में छिपा है. कर्ण का जन्म होना और जीवनभर यातनाएं भोगना भी उसके पूर्व जन्म का फल था.                       

क्या कर्ण का पीछा कर रहा था पिछले जन्मों का कर्म?

सतयुग में नर और नारायण ऋषि जो कि श्रीहरि के अंशावतार थे, वे तपस्या कर रहे थे. दुरदु्म्भ (दम्भोद्भवा) नाम के एक राक्षस को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता है जिसने एक हजार साल तप किया हो. राक्षस को सूर्य देव ने 100 कवचों और दिव्य कुंडल का वरदान भी दे रखा था. जो भी उसका एक कवच भी तोड़ता उसकी भी मृत्यु हो जाती. दुरदुम्भ के अत्याचार से परेशान देवता विष्णु जी के पास गए तो उन्होंने सभी को नर-नारायण के पास भेज दिया. नर-नारायण ने देवताओं की बात सुनीं और उनकी सहायता का वचन दिया.


नर-नारायण की कथा

राक्षस से युद्ध शुरू हुआ. पहले नर ने युद्ध किया, नारायण तपस्या करते रहे. कई दिन तक युद्ध के बाद नर ने राक्षस का कवच तोड़ दिया और नर की भी मृत्यु हो गई. इस पर नारायण उठे और तपस्या के फल से नर को जीवित कर दिया. अब नर ने तपस्या शुरू की और नारायण युद्ध करने लगे.  नारायण ने दूसरा कवच तोड़ा तो उनकी भी मृत्यु हो गई, लेकिन उन्हें नर ने तप के फल से जीवित कर दिया. इस तरह लगातार युद्ध चलता रहा. नर-नारायण एक-एक करके युद्ध करते रहे, कवच तोड़ते रहे और एक-दूसरे को जीवित करते रहे.


99 कवच वाला एक राक्षस

जब एक-एक करके राक्षस के 99 कवच टूट गए तो राक्षस भागा और सूर्य के पीछे जा छिपा. सूर्य देव ने नर-नारायण से शरणागत की रक्षा की प्रार्थना की. तब नारायण ने कहा कि ठीक है, इसका फल आपको भी भुगतना होगा. अब यह राक्षस आपके तेज से द्वापर में जन्म लेगा और यही कवच-कुंडल तब भी इसके पास रहेंगे, लेकिन मृत्यु के समय काम नहीं आएंगे. कवच-कुंडल के साथ जन्मा कर्ण वही राक्षस था, लेकिन इस पर युद्ध से ठीक पहले इंद्र उससे कवच-कुंडल दान में मांग ले गए. लिहाजा कवच रहा नहीं और अर्जुन की रक्षा हो गई. वरदान के अनुसार अगर अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ देता तो उसकी भी मृत्यु हो जाती. वैसे सूर्यदेव ने भी कर्ण की रक्षा की बहुत कोशिश की थी. उन्हें पता था कि महाभारत में नारायण कृष्ण अवतार लेंगे और पांडवों की रक्षा करेंगे, इसलिए उन्होंने कर्ण को सबसे बड़े पांडव के रूप में भेजा था, लेकिन तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है... होइहे वही जो राम रचि राखा... पांडव बनकर जन्म लेने के बाद भी आखिरकार कर्ण युद्ध में मारा ही गया. यह कथा महाभारत के आदिपर्व और भागवत पुराण में कही जाती है, जहां कृष्ण-अर्जुन के पूर्व जन्म के रहस्य को बताया गया है.


अमर रही कर्ण की दानवीरता

कर्ण का अंत भले ही महाभारत में हो जाता है, लेकिन उसकी दानवीरता अमर रही, बल्कि महाभारत में हुए तमाम छल और निगेटिव किरदारों के खेमे में रहने के बावजूद कर्ण के चरित्र पर दाग नहीं लगे. महारथी कर्ण का हर रोज का नियम था कि वह प्रातः काल गंगा स्नानकर सूर्य देव को अर्घ्य देता था और पूजन की समाप्ति के तुरंत बाद जो भी उससे कुछ भी मांगता, कर्ण बिना संकोच उसे वह दान दे देता था. कई बार यही नियम उसके खुद के लिए प्रतिकूल भी साबित हुआ, बल्कि ये जानते हुए भी कि नियम उसके प्रतिकूल है, लेकिन खुद जलकर सारे संसार को प्रकाशित करने वाले सूर्य का पुत्र कैसे अपने नियम से डिग जाता, लिहाजा कर्ण ने भी कभी अपना नियम नहीं भंग किया. 

जब देवराज ने मांग लिए कवच-कुंडल

उसके जीवन के दान की सबसे प्रसिद्ध घटना, महाभारत यु्द्ध से ठीक पहले ही तब घटित होती है, जब देवराज इंद्र उसके कवच-कुंडल मांग ले जाते हैं. युद्ध होने में कुछ ही दिन बचे थे. कर्ण अपने नियम के अनुसार नदी स्नान कर सूर्यपूजा कर रहा था. ठीक उसी समय उसके सामने एक ब्राह्मण आया. कर्ण ने उसे प्रणाम किया और उसकी इच्छा पूछी, लेकिन ब्राह्मण चुप रहा. कर्ण ने पूछा क्या आप गाय चाहते हैं, सोना-चांदी या कुटिया बनाने के लिए भूमि चाहते हैं. क्या किसी यज्ञ-हवन के लिए धन की जरूरत है, या कन्या के विवाह में कोई बाधा. ब्राह्मण अतिथि फिर भी चुप रहा. यह देखकर कर्ण ने कहा कि क्या कोई क्षत्रिय अपनी मर्यादा भूलकर ब्राह्मण देव को कष्ट दे रहा है. कर्ण प्रश्न करता रहा, लेकिन ब्राह्मण चुप ही रहा. यह देखकर कर्ण भी चुप हो गया और सोचने लगा कि शायद ब्राह्मण देव का मौन व्रत हो और वह विशेष मुहूर्त के बाद कुछ कहें.


रश्मिरथी में है वर्णन

तब ब्राह्मण ने बोलना शुरू किया और कर्ण की दानवीरता की बहुत प्रशंसा करने लगा. उसने कहा कि आपकी दानवीरता बहुत प्रशंसा सुनी है. आप जो संकल्प कर लेते हैं, जरूर पूरा करते हैं बल्कि कई बार तो उससे भी अधिक बढ़कर. बादल भी उतना ही जल बरसा पाते हैं, जितना उनके कोष में होता है, लेकिन आपके दान की सीमा सागर से भी गहरी है. हालांकि यह भी मनुष्य का भाग्य है कि उसे सब कुछ नहीं मिल सकता. आप भी क्या कर सकते हैं, जब मेरे ही भाग्य में अपनी इच्छापूर्ति नहीं लिखा है. ऐसा कहकर वह ब्राह्मण खुद को बहुत दीनहीन दिखाने की कोशिश करने लगा.


कविवर रामधारी सिंह दिनकर, इस प्रसंग को अपनी रचना 'रश्मिरथी' में बहुत करीने से पिरोया है. वह लिखते हैं.

गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,
लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,
कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,
नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी.


'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा.
स्वर्ग किसी दिन भीख मांगने मिट्टी पर आएगा.
किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है.


भली-भांति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,
'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी.
ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,
महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है.


'भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से मांगेंगे,
जिसे नहीं पाकर, निराश हो, अभिलाषा त्यागेंगे?
गो, धरती, धन, धाम वस्तु जितनी चाहे दिलवा दूं,
इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढ़ा दूं.


'या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,
तो भी वचन तोड़कर हूंगा नहीं विप्र का द्रोही.
चलिए साथ चलूंगा मैं साकल्य आप का ढोते,
सारी आयु बिता दूंगा चरणों को धोते-धोते.


कर्ण की ये शपथ सुनकर, ब्राह्मण ने धीरे से कहा- मुझे आपके कवच-कुंडल चाहिए. ये सुनकर भी कर्ण, जरा भी विचलित नहीं हुआ और सहर्ष ही उन्हें अपने शरीर हटाकर देने के लिए तैयार हो गया. कवच-कुंडल दान कर देने के बाद उसने कहा भी, मैं जान गया हूं कि आप ब्राह्मण नहीं हैं, देवराज इंद्र हैं. लेकिन मैं आपका धन्यवाद ही करना चाहता हूं कि आपने मुझे सामान्य मनुष्य बना दिया. अब इतिहास और संसार यह नहीं कहेगा कि मैं अर्जुन से इसलिए जीत गया क्योंकि मेरे पास कवच-कुंडल था. आपने मुझे समानता के पद पर ला दिया है.


'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूं,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ.
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये.


'अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,
जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था.

जब कुंती ने कर्ण को बताया रहस्य

कर्ण को एक रात पहले ही उसके पिता सूर्यदेव सपने में आकर बता गए थे कि देवराज इंद्र कवच-कुंडल लेने आएंगे, इसके बावजूद कर्ण ने अपना नियम भंग नहीं किया था. कर्ण के सामने अपने जीवन का सबसे बड़ा रहस्य भी उसकी इसी सूर्यपूजा के नियम के समय ही खुलता है. युद्ध से कुछ दिन पहले ही मां कुंती आती हैं और बताती हैं कि वह राधेय नहीं, कौन्तेय है. कुंती का सबसे बड़ा पुत्र है. तब कर्ण अपनी मां को कहता है कि या तो अर्जुन जीवित बचेगा या फिर मैं. संसार में आपकी पांच पुत्रों की गिनती कभी नहीं बिगड़ेगी. इस तरह वह मां कुंती के आंचल में भी उनके पुत्रों का जीवन दान कर देता है.

कर्ण की दानवीरता पर हैं कई दंतकथाएं

कर्ण की दानवीरता ऐसी है कि उसकी कई दंतकथाएं भी प्रचलित हैं. इन कहानियों को अलग-अलग क्षेत्रीय स्तरों पर महाभारत से जोड़कर देखा जाता है. इसी तरह एक कहानी बहुत प्रसिद्ध है. कृष्ण बार-बार कर्ण की दानवीरता की प्रशंसा करते थे. एक दिन अर्जुन खीझ गए. उन्होंने कहा कि दान-धर्म तो भैया युधिष्ठिर भी खूब करते हैं, लेकिन आप कर्ण की ही प्रशंसा क्यों करते हैं? कृष्ण ने इस सवाल का जवाब बताने के लिए अर्जुन से वेदपाठी ब्राह्मण का वेश बनाने के लिए कहा. अब ब्राह्मण वेश में दोनों युधिष्ठिर के पास गए. उस समय बारिश का मौसम था. ब्राह्मण कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि, हमें एक यज्ञ अनुष्ठान करना है इसके लिए चंदन की लकड़ी चाहिए और भोज के लिए ईंधन भी चाहिए. राज्य में बारिश हो रही थी कहीं भी सूखी लकड़ी नहीं मिली. तब युधिष्ठिर ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि जहां वर्षा न हो रही हो, वहां से चंदन और जलावन की लकड़ियां लाकर ब्राह्मणों को दी जाएं. ऐसा आदेश देने के बाद उन्होंने ब्राह्मणों से कुछ समय बाद आने को कहा.


कृष्ण-अर्जुन ने ली कर्ण की परीक्षा

अर्जुन ने कहा, देखा आपने, भैया कितने दानी हैं. एक साधारण ब्राह्मण के लिए अपने सैनिक दौड़ा दिए. कृष्ण ये सुनकर बस मु्स्कुरा दिए. आगे इसी ब्राह्मण वेश में वे कर्ण के पास गए और वहीं मांग दोहरायी. कर्ण ने देखा कि बारिश हो रही है, ऐसे में सूखी लकड़ियां मिलना मुश्किल था. उसने अगले ही पाल अपना धनुष उठा लिया और देखते ही देखते महल के खिड़की-दरवाजे, पलंग आदि सब तोड़ डाले और लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगा दिया. कर्ण ने कहा कि, अभी सूखी लकड़ियां मिलना मुश्किल है. इस महल के खिड़की-दरवाजे सभी चंदन की लकड़ी से बने हैं. आप ये सारी लकड़ी ले जाइए और जैसी इच्छा वैसे प्रयोग कीजिए. कर्ण की बात सुनकर कृष्ण ने अर्जुन को देखा तो अर्जुन ने बिना कुछ बोले सिर झुका लिया.


ऐसी ही एक कथा है कि जब कर्ण महाभारत युद्ध में धराशायी पड़ा था, तब उसके दान की अंतिम परीक्षा लेने श्रीकृष्ण गए थे. उन्होंने ब्राह्मण वेश बनाकर अपनी गरीबी दूर करने के लिए कर्ण से कुछ स्वर्ण मांगा. तब कर्ण ने मरते-मरते भी अपना एक दांत उखाड़ दिया, जो कि सोने का था.

कर्ण में था अपार बल

दानवीरता के साथ-साथ कर्ण के बल की भी अपार सीमा थी. कर्ण-अर्जुन युद्ध हो रहा था. अर्जुन अपने एक बाण के प्रहार से कर्ण के रथ को कई हाथ पीछे धकेल देता था, जबकि कर्ण जब अर्जुन के रथ पर वार करता तो वह तीन-चार अंगुल ही पीछे जा पाता. इसके बावजूद कृष्ण लगातार कर्ण के बल की प्रशंसा कर रहे थे और अर्जुन से बार-बार कह रहे थे कि और प्रयास करो. इस पर अर्जुन पूछता है कि कर्ण तो हमारे रथ को जरा सा ही हिला पाता है और आप उसकी प्रशंसा कर रहे हैं, तब कृष्ण कहते हैं कि, अर्जुन. तुम्हारे रथ पर धर्म है, ध्वजा पर चिह्न रूप में खुद वीर हनुमान हैं, जो साक्षात रुद्र हैं, तुम खुद इंद्र के अवतारी हो और इन सबके साथ तीनों लोकों, 14 भवनों और सभी कालों का भार लिए मैं खुद बैठा हूं, इसके बावजूद वह कर्ण तुम्हारे रथ को चार अंगुल पीछे धकेल देता है. क्या इस सामर्थ्य को तुम कम आंकते हो?

युद्ध समाप्त होते ही क्यों भस्म हो गया अर्जुन का रथ

कहते हैं कि युद्ध समाप्त होने के तुरंत बाद कृष्ण रथ सहित अर्जुन को लेकर एक सुनसान जगह पहुंचे और अर्जुन को जल्द ही रथ से कूदने के लिए कहा. इसके तुरंत बाद कृष्ण भी उतरे. जैसे ही कृष्ण रथ से हटे एक भयंकर विस्फोट के साथ रथ में आग लग गई और वह भस्म हो गया. अर्जुन यह देखता ही रह गया. तभी वहां हनुमान जी प्रकट हुए और केशव से क्षमा मांगने लगे कि वह रथ को केवल इतने दिन ही संभाल सके, क्योंकि यह रथ टूट गया था. तब अर्जुन ने कहा, रथ टूट गया था. यह तो अभी भस्म हुआ, पहले तो ठीक था. तब हनुमान जी ने कहा कि नहीं पार्थ, यह रथ कर्ण से युद्ध के समय अपने 16वें दिन ही टूट गया था, जब कर्ण ने आप पर प्रहार किया था और केशव ने रथ को झुकाकर आपको बचाया था, तब वह तेजपुंज वाला बाण रथ से टकरा गया था, तब से मैं इसे श्रीराम की इच्छा से थामे हुए था. आज युद्ध समाप्त होते ही रथ भस्म हो गया.

ये थी कर्ण की वीरता, उसकी दानशीलता और उसके सूर्यदेव का अंश होने का प्रभाव. कर्ण ने गायत्री मंत्र को सिद्ध कर लिया था. देवी गायत्री का यह मंत्र असल में सूर्यदेव का ही मंत्र है जो हमें सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है. इस मंत्र को ऋषि विश्वामित्र ने प्रकट किया था और उन्होंने सूर्यदेव की आभा में ही गायत्री देवी को पहचाना था. कर्ण की यह कथा मानवता के लिए प्रेरणा है और युगों-युगों तक मनुष्यों को परहित के लिए प्रेरित करती रहेगी.

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